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ना जाने वक़्त की बाँहें कितनी बड़ी हैं,
जब भी छू के निकलता है, सब समेट ले जाता है
वो सारे लम्हे, वो सब नज़ारे,
जिनकी मुझको, तुमको, सबको ज़रूरत है,
कुछ अधूरे ख़्वाब कामिल करने हैं,
कुछ ग़लतियाँ सुलझानी हैं,
और ग़लतफ़हमियाँ!! उनका क्या?
पर वक़्त इतना संगदिल है,
लाख गुज़ारिशों पर भी, कुछ भी नहीं लौटाता है
ना जाने वक़्त की बाहें कितनी बड़ी हैं,
जब भी छू के निकलता है, सब समेट ले जाता है
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