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पास बैठो, मुस्कुराओ और क्या,
चाहता है दिल, यही सब और क्या।
और क्या तुझसे कहें, इसके सिवा,
तुम मिलोगे मुझसे, फिर कब और क्या।
इश्क़ में मज़हब, कहां से आ गया,
इश्क़ तो ख़ुद ही है, मज़हब और क्या।
भूख की खातिर, तमाशा बन के ख़ुद,
वो नटी करती थी, करतब और क्या।
भर ही जाता है, गुनाहों का घड़ा,
फैसला तो करता है, रब और क्या।
अपना सब कुछ, छोड़ कर बैठे हैं हम,
जिंदगी ही रह गई, अब और क्या।
हमने तो जो कहना था, वो कह दिया,
तुम निकालो इसके, मतलब और क्या।
~कर्मेंद्र
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