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कितनी बूढ़ी आँखों को उन अपनो के साथ की देरी थी।
बेह चली याद करके कभी एक सी उनग्लियां इन अपनो पे फेरी थी ।
क्या पता था वक्त सी भड़ती इच्छाओ पे लड़ पड़ेंगे ये जमीन तेरी ये मेरी थी।
उन माँ बाप की छोटी सी इच्छाऐ अपने ही खून से बेह रही थी।
सांप खुले गलियारो में थे इंसानियत बिलो में ठहरी थी।
कितनी बूढ़ी आँखों को उन अपनो के साथ की देरी थी।
उन माँ बाप की छोटी सी इच्छाऐ अपने ही खून से बेह रही थी।
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