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टूट-फूट से बचता हुआ
नाजुक संतुलन बनाते हुए
रहे सब कुछ बस ज़रा ज़रा-सा।
ज़िन्दगी लगती कामचलाऊ
पर रूकती नहीं ज़रा-सा।
प्रेम के रफ़्तार में
टुकड़े-टुकड़े लिहाज़ में
तलाश अपनी उम्र की
करती रहती ज़रा-सा।
व्यर्थ के दिन-रात में
अंकुरण के इंतिज़ार में
मोहलत बस ज़रा-सा।
फिर धूप की तपिश और
सूख कर ऐंठना
जलना-बुझना ज़रा-सा।
फिर-फिर उगने के संघर्ष में
समय दिखता ज़रा ज़रा-सा।
मुनासिब नहीं उजाला रहे
अंधेरा चाहिए ज़रा ज़रा-सा।
दबे बीज की गहराई में
जड़े जमाने की फ़िराक़ में
अपनी जगह के एकांत में
ज़मीन से ऊपर उठकर
खड़े होना धीरे-धीरे ज़रा ज़रा-सा।
किताब के पन्ने फड़फड़ाते रहे
जो दिलासा दे तप रही बंजर उजाड़ को
वो कविता ज़रा-सा सिंचित करती रहे।
ज़िंदगी के लिखे को एक तरफ़ रख दूँ
पर नज़र उस शिलालेख पर टिकी रहे
जो अदृश्य का दृश्य बुनकर बीत गयी
ज़रा ज़रा-सी की बात पर
ज़ेहन की दीवार पर चलती रहे।
जानता हूँ
ये ज़रा-सा दुर्लभ है
पर सबको मिलता रहे
संवेदना की उँगलियाँ
इसे कविता बन छूती रहे।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
नाजुक संतुलन बनाते हुए
रहे सब कुछ बस ज़रा ज़रा-सा।
ज़िन्दगी लगती कामचलाऊ
पर रूकती नहीं ज़रा-सा।
प्रेम के रफ़्तार में
टुकड़े-टुकड़े लिहाज़ में
तलाश अपनी उम्र की
करती रहती ज़रा-सा।
व्यर्थ के दिन-रात में
अंकुरण के इंतिज़ार में
मोहलत बस ज़रा-सा।
फिर धूप की तपिश और
सूख कर ऐंठना
जलना-बुझना ज़रा-सा।
फिर-फिर उगने के संघर्ष में
समय दिखता ज़रा ज़रा-सा।
मुनासिब नहीं उजाला रहे
अंधेरा चाहिए ज़रा ज़रा-सा।
दबे बीज की गहराई में
जड़े जमाने की फ़िराक़ में
अपनी जगह के एकांत में
ज़मीन से ऊपर उठकर
खड़े होना धीरे-धीरे ज़रा ज़रा-सा।
किताब के पन्ने फड़फड़ाते रहे
जो दिलासा दे तप रही बंजर उजाड़ को
वो कविता ज़रा-सा सिंचित करती रहे।
ज़िंदगी के लिखे को एक तरफ़ रख दूँ
पर नज़र उस शिलालेख पर टिकी रहे
जो अदृश्य का दृश्य बुनकर बीत गयी
ज़रा ज़रा-सी की बात पर
ज़ेहन की दीवार पर चलती रहे।
जानता हूँ
ये ज़रा-सा दुर्लभ है
पर सबको मिलता रहे
संवेदना की उँगलियाँ
इसे कविता बन छूती रहे।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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