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टूट-फूट से बचता हुआ
नाजुक संतुलन बनाते हुए
रहे सब कुछ बस ज़रा ज़रा-सा।
ज़िन्दगी लगती कामचलाऊ
पर रूकती नहीं ज़रा-सा।
प्रेम के रफ़्तार में
टुकड़े-टुकड़े लिहाज़ में
तलाश अपनी उम्र की
करती रहती ज़रा-सा।
व्यर्थ के दिन-रात में
अंकुरण के इंतिज़ार में
मोहलत बस ज़रा-सा।
फिर धूप की तपिश और
सूख कर ऐंठना
जलना-बुझना ज़रा-सा।
फिर-फिर उगने के संघर्ष में
समय दिखता ज़रा ज़रा-सा।
मुनासिब नहीं उजाला रहे
अंधेरा चाहिए ज़रा ज़रा-सा।
दबे बीज की गहराई में
जड़े जमाने की फ़िराक़ में
नाजुक संतुलन बनाते हुए
रहे सब कुछ बस ज़रा ज़रा-सा।
ज़िन्दगी लगती कामचलाऊ
पर रूकती नहीं ज़रा-सा।
प्रेम के रफ़्तार में
टुकड़े-टुकड़े लिहाज़ में
तलाश अपनी उम्र की
करती रहती ज़रा-सा।
व्यर्थ के दिन-रात में
अंकुरण के इंतिज़ार में
मोहलत बस ज़रा-सा।
फिर धूप की तपिश और
सूख कर ऐंठना
जलना-बुझना ज़रा-सा।
फिर-फिर उगने के संघर्ष में
समय दिखता ज़रा ज़रा-सा।
मुनासिब नहीं उजाला रहे
अंधेरा चाहिए ज़रा ज़रा-सा।
दबे बीज की गहराई में
जड़े जमाने की फ़िराक़ में
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