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वक़्त पर मरहम
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
वक़्त पर मरहम
रूंधे गले से
काँपते शब्द लगा नहीं पाते हैं
गिरी हुई मनुष्यता में
नरसंहार के कृत्य
धर्म के खोल में छुप जाते हैं।
कब्ज़ा के लिए अलगाव का बीज बोता है
मौका मिले तो नस्लभेद का खेल खेलता है
जंगल में भी ऐसा नहीं होता
क्योंकि जानवर पैंतरा नहीं बदलता है
लेकिन लोकतंत्र कहकर
अख़्तियार में है जिनके सत्ता
वो चुप की चादर तान कर सोता है।
फ़ाइल देखकर कहता हूँ
मौसम बदल सकता है
लेकिन
मज़हब का पेट ख़ून से भरने की
नहीं बदल सकती मानसिकता
क्योंकि देख रहा हूँ
लम्बी फ़ेहरिस्त है
कविता को ख़ून में रंगने की
बेघर हुए जो उनके दर्द को तमाशा कहने की।
यह सब देख
भला कैसे ख़ुश हो सके वो
जिनके जेब में सत्ता का चाबुक था।
और
बे-कसूर समझते हैं वो ख़ुद को
जिनके हाथों में सरिया, राॅड, दराँती
पैना आरी और चाकू था।
बंदूक का घोड़ा मासूमों को
कत्तई
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
वक़्त पर मरहम
रूंधे गले से
काँपते शब्द लगा नहीं पाते हैं
गिरी हुई मनुष्यता में
नरसंहार के कृत्य
धर्म के खोल में छुप जाते हैं।
कब्ज़ा के लिए अलगाव का बीज बोता है
मौका मिले तो नस्लभेद का खेल खेलता है
जंगल में भी ऐसा नहीं होता
क्योंकि जानवर पैंतरा नहीं बदलता है
लेकिन लोकतंत्र कहकर
अख़्तियार में है जिनके सत्ता
वो चुप की चादर तान कर सोता है।
फ़ाइल देखकर कहता हूँ
मौसम बदल सकता है
लेकिन
मज़हब का पेट ख़ून से भरने की
नहीं बदल सकती मानसिकता
क्योंकि देख रहा हूँ
लम्बी फ़ेहरिस्त है
कविता को ख़ून में रंगने की
बेघर हुए जो उनके दर्द को तमाशा कहने की।
यह सब देख
भला कैसे ख़ुश हो सके वो
जिनके जेब में सत्ता का चाबुक था।
और
बे-कसूर समझते हैं वो ख़ुद को
जिनके हाथों में सरिया, राॅड, दराँती
पैना आरी और चाकू था।
बंदूक का घोड़ा मासूमों को
कत्तई
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