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हम बहुत सारी चीज़ों के बारे में
सिर्फ़ सोचते रहते हैं
तो क्या हमें केवल सोचते ही रहना चाहिए?
क्या दिमाग़ को हमेशा ही व्यस्त रहना चाहिए?
कभी आँखों में घन न थम सके
तो बरस जाना चाहिए
या फिर सब अंतस् भीतर ही सूखा देना चाहिए।
दिन-रात बदलती दुनिया में
बदलती सोच पर स्थिर होकर
भरोसा नहीं किया जा सकता।
सोच-विचार और चिंतन से
उपजी चिंता के आधिक्य को
रोका नहीं जा सकता।
अत्यधिक सोच के कारण ही
हम बीम
सिर्फ़ सोचते रहते हैं
तो क्या हमें केवल सोचते ही रहना चाहिए?
क्या दिमाग़ को हमेशा ही व्यस्त रहना चाहिए?
कभी आँखों में घन न थम सके
तो बरस जाना चाहिए
या फिर सब अंतस् भीतर ही सूखा देना चाहिए।
दिन-रात बदलती दुनिया में
बदलती सोच पर स्थिर होकर
भरोसा नहीं किया जा सकता।
सोच-विचार और चिंतन से
उपजी चिंता के आधिक्य को
रोका नहीं जा सकता।
अत्यधिक सोच के कारण ही
हम बीम
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