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हम बहुत सारी चीज़ों के बारे में
सिर्फ़ सोचते रहते हैं
तो क्या हमें केवल सोचते ही रहना चाहिए?
क्या दिमाग़ को हमेशा ही व्यस्त रहना चाहिए?
कभी आँखों में घन न थम सके
तो बरस जाना चाहिए
या फिर सब अंतस् भीतर ही सूखा देना चाहिए।
दिन-रात बदलती दुनिया में
बदलती सोच पर स्थिर होकर
भरोसा नहीं किया जा सकता।
सोच-विचार और चिंतन से
उपजी चिंता के आधिक्य को
रोका नहीं जा सकता।
अत्यधिक सोच के कारण ही
हम बीमार रहते हैं।
फिर हम सिर्फ़ और सिर्फ़
सोचते ही क्यूँ रहते हैं?
हम सोच को सोचते हुए मर रहे हैं
सोच के अनसुलझे जाल को बुन रहे हैं
शिकार होने को शिकारी की ओर बढ़ रहे हैं।
कविताई का प्रश्न है!
क्या हमें ख़ुद ही सोच के जाल में
क़ैद हो जाना चाहिए?
क्या हमें सोचते हुए
एक दिन बस यूँ ही मर जाना चाहिए?
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
सिर्फ़ सोचते रहते हैं
तो क्या हमें केवल सोचते ही रहना चाहिए?
क्या दिमाग़ को हमेशा ही व्यस्त रहना चाहिए?
कभी आँखों में घन न थम सके
तो बरस जाना चाहिए
या फिर सब अंतस् भीतर ही सूखा देना चाहिए।
दिन-रात बदलती दुनिया में
बदलती सोच पर स्थिर होकर
भरोसा नहीं किया जा सकता।
सोच-विचार और चिंतन से
उपजी चिंता के आधिक्य को
रोका नहीं जा सकता।
अत्यधिक सोच के कारण ही
हम बीमार रहते हैं।
फिर हम सिर्फ़ और सिर्फ़
सोचते ही क्यूँ रहते हैं?
हम सोच को सोचते हुए मर रहे हैं
सोच के अनसुलझे जाल को बुन रहे हैं
शिकार होने को शिकारी की ओर बढ़ रहे हैं।
कविताई का प्रश्न है!
क्या हमें ख़ुद ही सोच के जाल में
क़ैद हो जाना चाहिए?
क्या हमें सोचते हुए
एक दिन बस यूँ ही मर जाना चाहिए?
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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