संकल्प और वासना के 
संस्कार 
जहाँ अमर रहते हैं!
● मृत्युलोक में ईश्वर ही जीवन है
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।'s image
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संकल्प और वासना के  संस्कार  जहाँ अमर रहते हैं! ● मृत्युलोक में ईश्वर ही जीवन है - © कामिनी मोहन पाण्डेय।

Kamini MohanKamini Mohan March 24, 2022
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संकल्प और वासना के 
संस्कार 
जहाँ अमर रहते हैं!

● मृत्युलोक में ईश्वर ही जीवन है

- © कामिनी मोहन पाण्डेय।

इस दुनिया में जो लोग अपने चित्त को सब प्रकार से ईश्वर को अर्पण कर देते हैं, अथवा गर्भस्थ शिशु के जैसे किसी प्रकार का उद्योग करना छोड़ देते हैं, वे ही विचारों को रोकने में कामयाब होते हैं। मैं दृढ़तापूर्वक मानता और कहता हूँ कि शोषण-दमन, जातिगत और धार्मिक भेद, शत्रुता, कट्टरता, विद्रोह, अलगाव की भाषा कविता कभी भी नहीं बन सकती है। इसलिए इनमें संलिप्त रहना अनुचित है। 

विचारों को रोकने की जद्दोजहद एक तरफ़ और उक्त सभी द्रोही प्रवृत्ति एक तरफ़ है। इसलिए पहले तो सत्य की ओर चलना होगा, फिर सात्विक विचारों में डूब जाना होगा, उसके बाद ही चेतना तक पहुँच पाना संभव होगा। हम भूल जाते हैं कि प्रेम का सर्व-समाहित बोध मनुष्य के संवेदना की गहराई है। यह संवेदना जितनी मुखर होकर स्पष्ट होती जाएगी, उतना ही मनुष्य का जीवन उपयोगी होगा जाएगा।

इसी प्रकार जिनका मन ईश्वर के सिवाय और कहीं नहीं रमता, जो एकनिष्ठ अंतःकरण से ईश्वर का चिंतन करते हैं, वे भी ईश्वर के थ्यान में रहते हैं। हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जिनका सम्पूर्ण ध्यान ईश्वर में ही होता है। उनके भरण-पोषण और कुशलता का भार ईश्वर के ही ऊपर आ पड़ता है। इसलिए हमारे जीवन निर्वाह की व्यवस्था स्वयं ईश्वर करते हैं।

इस सम्बन्ध में अपनी सोच और दृष्टि बदलने की जरूरत है। ईश्वर ही है जो सूर्य रुप में तपते हैं, इद्र रुप में वर्षा करते हैं, जिस प्रकार अग्नि जब काष्ठ का भक्षण करती है तब वह काष्ठ ही अग्नि रुप बन जाती है। इसी प्रकार मरने वाला और मारने वाला दोनों ही ईश्वर के ही रुप है। सत् और असत्, बुरा और भला दोनों ईश्वर के ही अंग है। ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ ईश्वर न हो। इसके बावजूद प्राणियों का दुर्भाग्य ही है कि उन्हें ईश्वर दिखायी नहीं देता। यह कुछ ऐसा ही है जैसे लहरों का अस्तित्व पानी के बिना समाप्त हो जाय अथवा सूर्य की किरणों के बग़ैर प्रकाश किरणों का अस्तित्व हो जाय। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ईश्वर ही सर्वजीव रुप है तो भी प्राणी उन्हें पहचान नहीं पाते। समस्त विश्व के भीतर और बाहर ईश्वर ही है।

समस्त जगत् ईश्वर से ही भरा है यह सारा जगत् ईश्वर का ही रुप है तो भी प्राणियों के कार्य जब बाधक बन जाते हैं तो वे यह भी कहने से नहीं चूकते हैं कि ईश्वर कहीं नहीं है। अन्न की भिक्षा माँगते हुए जिस प्रकार अंधे को चिंतामणि मिल जाय, पर वह न देख पाने के कारण उसे पैर से हटा दे, कुछ ऐसी ही स्थिति मनुष्य की है। इसीलिए कहा जाता है कि अज्ञानता

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