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दरवाज़े पर कोई नई दीवार
खड़ी थीं।
नये दरवाज़े रास्ते बदल चुके थे।
उस पर कुछ छायाएँ
कुछ बाहर कुछ भीतर खड़ी थीं।
अब तक खिली है
मां के छायाचित्र के पास
वात्सल्य की धूप गुलाबी ठंडक की तरह।
रंग बदलते
प्रेम के इतिहास का सारांश
बाकी दीवारों पर टंगा है
कैलेंडर की तरह।
अनजान रहा मैं
अनदेखी खड़ी दीवार से
जिस पर नहीं होगा प्लास्टर
कुछ चेहरे हैं
जो दीवार पर सिर्फ़ छायाओं से चलते हैं।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
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