पहर कोई भी हो
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पहर कोई भी हो - © कामिनी मोहन।

Kamini MohanKamini Mohan July 7, 2022
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पहर कोई भी हो
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।

पहर कोई भी हो
विचार स्थिर नहीं हो रहे हैं
बिना सिर-पैर के भागे चले जा रहे हैं
तलवों में ऐंठन देह बदहवास है
पाँव के निशान फ़र्श पर छप रहे हैं।

उबाल से पहले बढ़ता रक्तचाप
बहता पसीना बेहिसाब
निर्झर धुल रहे सब संताप।

धूँ धूँ विचाराग्नि धधक रहीं
मन को उदिग्न कर रहीं।

सफ़र है पाक्षिक काग़ज़ पर
आधी रात की चंद्रमा के रंग
कविता के चरणों में रखकर
चुकता कर न सकेंगे मूल्य
श्रम से ख़रीदकर विचार-पुष्प
हाथ में लिए सोचते जा रहे हैं।

इतिहास में दर्ज़ होगी यात्रा
धरती के दीप-पुष्प की
काशी में स्नानकर
देह से पश्चाताप के
आँसू माँग रहे हैं।

सीमित है साँसे

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