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" निरस्त्र देह "
है कामना चलायमान रहने की
इसलिए निरस्त्र होते कर्मेन्द्रियों मेंं,
बचे हुए अस्त्र को टटोलते हैं।
देना चाहते हैं अबाधित यात्रा,
तय रूट पर ताक़त झोंकते हैं।
बताने को कुछ भी नहीं,
पर कितना कुछ बोलते हैं।
वक़्त के साथ निरंतर सिकुड़ कर
ख़राब हो रहे अंगों-प्रत्यंगों को
ठीक करने को अनगिनत दवाओं संग,
प्रार्थना को हाथ जोड़ते हैं।
घटते ज्ञानेन्द्रियों के बावजूद,
संकेतों को समझकर चलते हैं।
जीवन में पारंगत होकर
अंतःकरण की सोचते हैं।
अतीत को वर्तमान से तौलते हैं,
निरस्त्र देह को देखते हैं।
फिर अदम्य साहस और पीड़ा को,
चित्त में शरण देते हैं।
समेटकर सब कुछ
सारथी आत्मा रख लेता है
हम अशेष प्रेम की,
बची अस्थियों के फूल चुनते हैं।
अंततः विस्मृत स्मृतियाँ
और भूली भटकी कामना के ख़रोंच,
सब यात्रा में पार उतरते हैं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
है कामना चलायमान रहने की
इसलिए निरस्त्र होते कर्मेन्द्रियों मेंं,
बचे हुए अस्त्र को टटोलते हैं।
देना चाहते हैं अबाधित यात्रा,
तय रूट पर ताक़त झोंकते हैं।
बताने को कुछ भी नहीं,
पर कितना कुछ बोलते हैं।
वक़्त के साथ निरंतर सिकुड़ कर
ख़राब हो रहे अंगों-प्रत्यंगों को
ठीक करने को अनगिनत दवाओं संग,
प्रार्थना को हाथ जोड़ते हैं।
घटते ज्ञानेन्द्रियों के बावजूद,
संकेतों को समझकर चलते हैं।
जीवन में पारंगत होकर
अंतःकरण की सोचते हैं।
अतीत को वर्तमान से तौलते हैं,
निरस्त्र देह को देखते हैं।
फिर अदम्य साहस और पीड़ा को,
चित्त में शरण देते हैं।
समेटकर सब कुछ
सारथी आत्मा रख लेता है
हम अशेष प्रेम की,
बची अस्थियों के फूल चुनते हैं।
अंततः विस्मृत स्मृतियाँ
और भूली भटकी कामना के ख़रोंच,
सब यात्रा में पार उतरते हैं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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