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आँखों में अविरल नेह लिए
एक दिन सारी घातें रीत गईं।
बस यही मेरा जीवन निर्वाह है क्या?
किरण-किरण से पूछ भईं।
भूले-भटके ही क्यूँ बस,
दो घड़ी स्निग्ध हृदय की शोभा है।
चारों तरफ़ आदिम निशान लिए,
क्या अपूर्ण कविता की शोभा है।
अंतर को जो प्रसन्न करे,
ऐसी चलती हवा नहीं।
भूले-भटके छाया मिल जाए,
ऐसा घनीभूत वन-कुंज नहीं।
एक दिन सारी घातें रीत गईं।
बस यही मेरा जीवन निर्वाह है क्या?
किरण-किरण से पूछ भईं।
भूले-भटके ही क्यूँ बस,
दो घड़ी स्निग्ध हृदय की शोभा है।
चारों तरफ़ आदिम निशान लिए,
क्या अपूर्ण कविता की शोभा है।
अंतर को जो प्रसन्न करे,
ऐसी चलती हवा नहीं।
भूले-भटके छाया मिल जाए,
ऐसा घनीभूत वन-कुंज नहीं।
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