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क्या कविता से
खेतों को सींचा जा सकता है?
पक चुके फ़सलों को,
काटा जा सकता है।
क्या तरह-तरह की भूख को,
परिभाषित किया जा सकता है?
दैहिक- मानसिक हिंसा को,
रोका जा सकता है।
जी हाँ, मैं देख रहा हूँ,
कविता:
तन, मन की पीड़ा की,
उपज को काटती है।
रिक्तता को भर कर,
पूर्णता बाँटती है।
एक आहट पर ही
उड़ जाते पक्षी के,
दर्द को ताकती है।
चूक रहे मनुष्य के,
मनुष्यता की वापसी है।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय
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