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कस्तुरी जैसे मृदगंध - कामिनी मोहन।

Kamini MohanKamini Mohan May 20, 2022
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कस्तुरी जैसे मृदगंध
बहती हवा आसपास है
साँस संग आती जाती
बाहर-भीतर
पर मृग मन
जंगल-जंगल ढूँढ़ता
देखता आकाश है।

मृगमरीचिका-सी तृष्णा
गर्म रेत-सी उड़ती
धुंधलका आँखों पर
पलकों तले देखता विकास है।

पानी को तलाश
साफ़ भूख-प्यास देखने की
आख़िर तक उठाव-गिराव में
समतल से भटकाव है।
सदियों से नदी की छाती पर
लग रहा घाव है।

एक पहर से दूसरे पहर
बदलाव पर जाता ठहर
ठंडी और गरम हवा का
हल्के और गाढ़े ढंग का
रंग और बे-रंग दर्द का
अपना बहाव है।

अपने को समय को सौंपकर
मरुस्थल के ग़ोताख़ोर की
ख़्वाहिश है तैरने की
ख़ुद-ब-ख़ुद समंदर को परोसकर
समय के पार जाना प्राण का चाव है।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।

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