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देखो यारो रेल को, जैसे भागे साँप
आफत टली जान बची, हम तो गए थे काँप।।1।।
चढ़ते सूरज की धूप, कोई रोक न पाता।
नित बदलते जीवन को, कोई समझ न पाता।।2।।
देह घर के कमरे में, हवाओं की थपकी
ज़ेहन की दीवार पर, उम्मीद की खिड़की।।3।।
जूनून की चाहत में, राह धड़कता साज़
बे-ख़ौफ़ राही सुनता, धड़कन की आवाज़।।4।।
रात अंधेरी हो भले, रख जोश परवाने
भोर तो होगी देखो, तम हटा दीवाने।।5।।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
-काव्यस्यात्मा
आफत टली जान बची, हम तो गए थे काँप।।1।।
चढ़ते सूरज की धूप, कोई रोक न पाता।
नित बदलते जीवन को, कोई समझ न पाता।।2।।
देह घर के कमरे में, हवाओं की थपकी
ज़ेहन की दीवार पर, उम्मीद की खिड़की।।3।।
जूनून की चाहत में, राह धड़कता साज़
बे-ख़ौफ़ राही सुनता, धड़कन की आवाज़।।4।।
रात अंधेरी हो भले, रख जोश परवाने
भोर तो होगी देखो, तम हटा दीवाने।।5।।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
-काव्यस्यात्मा
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