" जब बारूदी धुएँ की गंध... "
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
जब बारूदी धुएँ की गंध रक्त में घुल जाता है
तब कुछ भी नज़र नहीं आता है
जब युद्ध में तप्त जिस्म कुम्हलाता है
तब दया, करूणा और प्रेम का आँसू
दूर कहीं चुपचाप झड़ जाता हैं।
धुएँ की लहरों पर
आग लिए तैरता है रक्तिम धुँआ
भविष्य की ओर अनुगत होता है
गोला-बारूद की चोट से
टूटे पुल और बिल्डिंगों की कराह देखता है।
ध्वस्त हो जाती हैं कविता
विस्तारवादी सोच में
छल सभ्य होने का
छुपा रहता छद्म मानवीयता की ओट में।
शोषण-मुक्त रखने का दावा जो तुम्हारा है
दुःख-दर्द का पोषण करने का उपक्रम सारा है
जीवन बस ढकोसला है
है आग बुझाने का आभासी पानी
कृत्रिम हो गई पवित्र पुस्तकों की वाणी।
वेदना के क्षण में उठती कराह है
काँपते बंकर की छत से टकराती आह है।
तेज़ सायरन की आवाज़ के बीच
तूफ़ानी धड़ाम, धड़ाम, धम्म गूँजती हैं,
काँप जाती हैं
बैठतीं है धड़कन
उखड़ती आती-जाती श्वास है।
बरख़ास्त होते अपने घर से
अ
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