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गोचर दृष्टि पाने को - कामिनी मोहन ।
सामने दीवार पर टंगी हुई तस्वीर ने
समय को रोककर भरमाया
लचकते शरीर में लावण्य की दमक
उभरी हुई सौंदर्य की आभा
विचारमग्न होंठो में
दबी रहस्यमयी मुस्कान
अनुराग संग छलकतीं माया
और आँखों के दो दीपों में झलकती काया हठात सत्यता मान लेता हूँ।
मानवी हो या कि दानवी
वास्तविक हो या कि अवास्तविक
सत्य-सचोट की सोचकर भी
कुछ भी न सोच पाता हूँ
विश्वास और अविश्वास की उँगली थामकर स्वप्न को हकीक़त समझ खड़ा हूँ।
बुझता हुआ धुआँ उठता हुआ
मानवी अमानवीय या कुछ भी नहीं...!
नहीं कह सकता हूँ।
उठते धुएँ की तरह हाथ फैलाए हूँ अनिर्णित, अनिर्दिष्ट कभी अवरुद्ध,
कभी विलुप्त, कभी निर्दिष्ट
विस्फारित आँखों में
मृतवत् जड़ता देखता हूँ
और निर्निमेष दृष्टि के बीच
दृष्टांत दृष्टिकोण रखते हुए
गोचर दृष्टि पाने को तड़पता हूँ।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय ।
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