एक सभ्यता के मिटने
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एक सभ्यता के मिटने - © कामिनी मोहन।

Kamini MohanKamini Mohan July 23, 2022
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सूरज के दम्भ से शुष्क हो जाते हैं
कुऍं, ताल-पोखर और घाट
फिर लगती है अमिट प्यास
सुना है जो जितना प्यासा होता है
पानी को अपने भीतर
उतना ही जगह देता है।

सब सूख जाए
तो बहुत कुछ होता है
सब बंजर हो जाए
तो बहुत कुछ घटता है।

रेत उड़ने से पहले
जलचर विस्थापित होते हैं।
नदी में नाव नहीं चलती,
माझी किनारा नहीं ढूँढते हैं।

पैदल ही इस पार से उस पार,
लोग चले जाते हैं।
इस पार से उस पार तक पगडंडी
नदी की काया पर खींच जाते हैं।

प्रतीक्षा रहती है पगडंडी को
बारिश के आने की,
नदी के मन से पहले
स्वयं के भर जाने की।

है उम्मीद किनारे खड़े वृक्ष

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