दर्ज़ उपाख्यान के उद्वेग 
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दर्ज़ उपाख्यान के उद्वेग - © कामिनी मोहन।

Kamini MohanKamini Mohan July 27, 2022
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ऊपर न देखे
बाहर न देखे
पर कहीं न कहीं कुछ तो हैं
जो अपनी धुरी की ओर ही खींचे हैं।
हम कंटकित चुपचाप बस कस्तुरी ढूँढ़े हैं।

दिगंत में रखा आईना
सब साफ़-साफ़ देखे हैं
अस्तित्व से अनजाने हम
भीतर को न पहचाने
और न कभी रूककर देखे हैं।

बस अपने आप से हैं लड़ रहे
और अपने चोट गिन-गिन कर देखे हैं।

है अदृश्य पर है कहीं न कहीं
ऐसा सोचकर
भौतिक आकृतियों को रटता हूँ
याद करते हुए नहीं थकता हूँ।

जानता हूँ असंख्य दृश्यों का है
अनंत दृष्टिकोण
काग़ज़ पर कहाँ रखूँ?
समझ नहीं पाता हूँ।

सब काला किया
अब कोई प्रतीक नहीं बचा रखने को
लिखने की ताक़त भी नहीं बची
कहीं ऐसा न हो
आख़री पल से पहले तक रटते-रटते
अपनी ही आवाज़ को अनसुना करता रहूँ।

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