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अर्धांगिनी
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
अर्धांगिनी एक विवाहिता स्त्री को कहते हैं। चूँकि पत्नी पति की अर्धांगिनी है, इसलिए पति के जीवित रहते भी और पति की मृत्यु के बाद भी स्त्री में वह जीवित रहता है। ठीक ऐसे ही पति में भी उसकी पत्नी जीवित रहती है, सदा विद्यमान रहती है। ऐसे में अर्धांगिनी को के पति के सारे अधिकार मिलने चाहिए। उसे अधूरा कहने वालों को अपनी अज्ञानता दूर कर लेनी चाहिए।
कल्याणकारी परमपिता परमात्मा देवों के देव महादेव शिव के अर्धनारीश्वर रूप में प्रकट होने के बाद अर्धनारीश्वर शब्द की उत्पत्ति हुई। एक विवाहिता स्त्री पूरे परिवार का भरण पोषण करने के कारण भार्या और पति को पतन से बचाने के कारण पत्नी कही जाती है।
मनु और नारद दोनों ने कहा है, जिस प्रकार पुत्र आत्मसम है, उसी प्रकार पुत्री भी पुत्र के समान है। पुत्र-पुत्री दोनों बराबर है। इसलिए पुत्र के न रहने पर पुत्री ही पुत्र है। पुत्र और पुत्री दोनों वंश के रक्षक और परम्परा के संवाहक है।
मनु और नारद ही नहीं जीमूतवाहन का दायभाग, याज्ञवलक्य का मिताक्षरा समेत तमाम शास्त्र यही बात कह रहे हैं। मिताक्षरा मैं दर्ज़ है कि अध्यग्नि, यानी विवाह के समय अग्नि के समक्ष लड़की को दिया गया धन, अध्यावाहनिक, यानी विवाह के समय लड़की को पिता के घर से मिला धन है। इसी तरह अन्बाधेय यानी विवाह के समय या बाद में दिया गया धन, स्त्री धन है। हमारे समाज में व्याप्त दहेज की कुरीतियां शास्त्र का नियम मानकर ही, अब तक चली आ रही है।
स्त्री को अधिकार देने के लिए 1956 का विवाह कानून है। यह कानून भी शास्त्र की उक्तियों के अनुरूप ही चलता है। आधुनिकता के डिजीटल क्रांति के युग में भी हम पुराने समाज की व्यवस्था, संस्कार, स्वभाव को त्याग कर हम कितना भी नई व्यवस्थाओं का सृजन कर ले फिर भी सृष्टि चक्र के नियम और उसकी व्यवस्था पर हम अमल कर रहे हैं। यह नियम कभी पुराने नहीं होते सदैव तरोताज़ा रहते हैं। जीवन के सारे संस्कार बदल रहे हैं। हर क्रिया को जल्दी में निबटाने का नियम गढ़ा जा रहा है। ऐसे में शास्त्र की गतिशील बाते लोगों तक क्यों नहीं पहुँच रही है? यह समय निकालकर सोचने का विषय है।
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