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अपने भीतर झोंकती झांकती,
आवाज़ें है, पर ठहरी हुई।
सुनते हैं पर कुछ करते नहीं,
हाथ में लगी मिट्टी बहरी हुई।
उसके जाने के बाद ज़र्द ज़िन्दगी के,
ज़िल्द चुपचाप पड़े रहते हैं।
बाक़ी है तो बस ऊपर से झाँकने को,
अनेको कविताएँ पढ़ते रहते हैं।
बस एक गहरी साँस फिर,
आँख नए-नए दृश्य पर गड़ते रहते है।
देर तक यात्रा में झाँकते हुए,
हांफते हुए बदन लथपथ होते रहते हैं।
झाँकी है यादों की आवाज़ देकर,
एकटक झाँक आती है।
मुँदी हो आँखें पर अतीत में,
बिसर चुके को निहार आती है।
बाक़ी रह गया था जो कुछ भी,
गर्म हवा उसे झकझोर जाती है।
पूरा न होने की टीस और कसक
धूसरित सीढ़ी चढ़ती जाती है।
प्रेम ही पदार्थ है, प्रेम ही यथार्थ है,
दूर और पास से बस देखते जाते हैं।
धक्का देकर खुली खिड़की को खोलते हैं,
हवा के चीरे से निकले आँसू पोंछते जाते हैं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
आवाज़ें है, पर ठहरी हुई।
सुनते हैं पर कुछ करते नहीं,
हाथ में लगी मिट्टी बहरी हुई।
उसके जाने के बाद ज़र्द ज़िन्दगी के,
ज़िल्द चुपचाप पड़े रहते हैं।
बाक़ी है तो बस ऊपर से झाँकने को,
अनेको कविताएँ पढ़ते रहते हैं।
बस एक गहरी साँस फिर,
आँख नए-नए दृश्य पर गड़ते रहते है।
देर तक यात्रा में झाँकते हुए,
हांफते हुए बदन लथपथ होते रहते हैं।
झाँकी है यादों की आवाज़ देकर,
एकटक झाँक आती है।
मुँदी हो आँखें पर अतीत में,
बिसर चुके को निहार आती है।
बाक़ी रह गया था जो कुछ भी,
गर्म हवा उसे झकझोर जाती है।
पूरा न होने की टीस और कसक
धूसरित सीढ़ी चढ़ती जाती है।
प्रेम ही पदार्थ है, प्रेम ही यथार्थ है,
दूर और पास से बस देखते जाते हैं।
धक्का देकर खुली खिड़की को खोलते हैं,
हवा के चीरे से निकले आँसू पोंछते जाते हैं।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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