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“एक शब्द !” बोलते ही
मेरे अंदर कुछ गूँज उठा
आकार-प्रकार लिए
आ खड़ा हैं मेरे अंतर्तम में
और मेरे वाह्य आवरण में।
शब्द की पूरी परिभाषा
ज़ेहन पर है ज़ाहिर
क़दम बढ़ाते हुए चल पड़ा है
अगले शब्द को जोड़ने को हैं आतुर
अभिमान-स्वाभिमान की यात्रा को तय करते हुए
दोनों हाथों और कंधे पर सामान ढोते हुए
चल पड़ा है।
मैं अपने चेहरे को भूल बैठा हूँ
पहचान को अनचीन्हा कर बैठा हूँ।
मेरे बदन को ढंके हुए मेरी कमीज़ पर
धूल की रेखीय परत टँकी हुई है
कल तक जो कच्ची थी
आज पीत को समेटकर
मेरे सामने पकी हुईं है।
इस पके शब्द की टोकरी को
सम्भालते हुए ख़ुद सिर पर उठाता हूँ
पर सच भी जानता हूँ
न जाने कब यह झरकर टोकरी से गिर पड़े
पूरी कविता गढ़ने से पहले
आदमी का अधूरा चेहरा छोड़कर चल पड़े।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
मेरे अंदर कुछ गूँज उठा
आकार-प्रकार लिए
आ खड़ा हैं मेरे अंतर्तम में
और मेरे वाह्य आवरण में।
शब्द की पूरी परिभाषा
ज़ेहन पर है ज़ाहिर
क़दम बढ़ाते हुए चल पड़ा है
अगले शब्द को जोड़ने को हैं आतुर
अभिमान-स्वाभिमान की यात्रा को तय करते हुए
दोनों हाथों और कंधे पर सामान ढोते हुए
चल पड़ा है।
मैं अपने चेहरे को भूल बैठा हूँ
पहचान को अनचीन्हा कर बैठा हूँ।
मेरे बदन को ढंके हुए मेरी कमीज़ पर
धूल की रेखीय परत टँकी हुई है
कल तक जो कच्ची थी
आज पीत को समेटकर
मेरे सामने पकी हुईं है।
इस पके शब्द की टोकरी को
सम्भालते हुए ख़ुद सिर पर उठाता हूँ
पर सच भी जानता हूँ
न जाने कब यह झरकर टोकरी से गिर पड़े
पूरी कविता गढ़ने से पहले
आदमी का अधूरा चेहरा छोड़कर चल पड़े।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
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