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जीवन कर दो सरल प्रभु, सुख-शांति रहे साथ।
कांपते क़लम से लिखूँ , डगमग नैया साथ।।1।।
खोल के आँखें देखो, सब खेल रहे खेल।
साँप सीढ़ी बना इंसाँ, रोके सबकी रेल।।2।।
अलग रंग के दिखे भले, रहे हमेशा पास।
सबमें प्रेम एका रहे, इतनी-सी बस आस ।।3।।
आओ मित्र देखो इधर, दीप नहीं अब दूर।
आगे हम बढ़ते चले, अंधेरा हुआ दूर।।4।।
गुमसुम मन परदेस में, आया है मधुमास।
टूटा तन विरहणी का, कैसे मिटे संत्रास।।5।।
उस जैसा चैतन्य कौन, यहाँ मिले फ़नकार।
रहे वो सबके भीतर, ढूँढ़े घूम संसार।।6।।
गागर में सागर कहे, कवि के हैं शब्द अनंत।
काव्य सूर्य ताप देखे, किरणों का आदि-अंत।।7।।
सफ़र को नया मोड़ दें, आओ उठाएँ क़दम।
टूटे पुल को जोड़ दें, जुड़ जाए क़दम क़दम।।8।।
मरण दिवस सबका लिखा, कोई जान न पाए।
हर क्षण मृत्यु सबका घटे, कोई समझ न पाए।।9।।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
-काव्यस्यात्मा (दोहा: 13 11; 13 11)
कांपते क़लम से लिखूँ , डगमग नैया साथ।।1।।
खोल के आँखें देखो, सब खेल रहे खेल।
साँप सीढ़ी बना इंसाँ, रोके सबकी रेल।।2।।
अलग रंग के दिखे भले, रहे हमेशा पास।
सबमें प्रेम एका रहे, इतनी-सी बस आस ।।3।।
आओ मित्र देखो इधर, दीप नहीं अब दूर।
आगे हम बढ़ते चले, अंधेरा हुआ दूर।।4।।
गुमसुम मन परदेस में, आया है मधुमास।
टूटा तन विरहणी का, कैसे मिटे संत्रास।।5।।
उस जैसा चैतन्य कौन, यहाँ मिले फ़नकार।
रहे वो सबके भीतर, ढूँढ़े घूम संसार।।6।।
गागर में सागर कहे, कवि के हैं शब्द अनंत।
काव्य सूर्य ताप देखे, किरणों का आदि-अंत।।7।।
सफ़र को नया मोड़ दें, आओ उठाएँ क़दम।
टूटे पुल को जोड़ दें, जुड़ जाए क़दम क़दम।।8।।
मरण दिवस सबका लिखा, कोई जान न पाए।
हर क्षण मृत्यु सबका घटे, कोई समझ न पाए।।9।।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
-काव्यस्यात्मा (दोहा: 13 11; 13 11)
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