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243.अफ़सोस- कामिनी मोहन।

Kamini MohanKamini Mohan April 13, 2023
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हर कविता वैश्विक मंच पर नहीं बोलती
आलोचना की गठरी को नहीं खोलती
दुख के आँसू से भीगी हुई
नैतिक व्यापार के नफ़ा-नुक़सान से
सिसकने को भी ज़ाहिर नहीं करतीं

चूक है विचारों की या कि
व्याख्यान की क़वायद है
जो स्मृतियों में लरज़ती है
कविता के अक्षरों में चलती रहती है

वह प्रेम जो थकाऊ कभी नहीं रहा
समसामयिक प्रयोगों को
समझते-समझते
एक ही कोख से लेकर जन्म
धारा के विपरीत चल पड़ती है

सबका धर्मप्रान्त एक-सा
तमाम कर्म-कान्त एक-सा
अभय-पथ अलिखित रास्तों पर
एक-सा दर्द भोगते चल पड़ती है

अनचाहे फफूँद के उग आने से
आरक्षित भय घेरने लगती है।
बेदख़ल करती हुई अनुपयोगी पर
हस्तक्षेप अलग-सी लगती हैं

हो चाहे जितना भी अंतर्विरोध का चलन
अफ़सोस को बुनती है।
प्रेम दुःख को नि:शेष
परभृत प्रतिबिंब में देखती रहती है।
- © कामिनी मोहन। 

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