
कला स्वभाव से जन्मी एक नियमबद्ध अनुकृति है। यह सदैव मनुष्यकृत नियमों का समर्थन करती है और प्रकृति के सौन्दर्यात्मक पक्ष के सद्व्यवहार का अनुकरण करती है। यदि जीवन से कृत्रिमता को निकाल दिया जाय तो जो दृश्य रूप-रंग लेकर शोभायमान होता है, वह स्वत:स्फूर्त कला है।
कला ही जीवनाशक्ति का परभृत प्रतिबिंब है। यह मूलतः एक आत्मिक और नैतिक चेष्टा है। भारतीय हिंदू शास्त्र परंपरा में 64 कलाओं की चर्चा है। सुख प्राप्त करने और निरंतर उसकी उन्नति किए जाने के पीछे जो मूल भावना है, वह धर्म की है। धड़कते धड़कन के साथ अंग-अंग की थिरकन लिए हुए भारतीय कला दुनियाभर में विख्यात है। भरतमुनि ने पंचम वेद कहे जाने वाले अपने नाट्य शास्त्र में 32 प्रकार के अंगहारों की गणना की है इसमें करण के 108 प्रकार है। सुंदर भावों द्वारा नृत्य के विराम रेचक के चार प्रकार है- पाद-रेचक, कटि-रेचक, तृतीय रेचक और चतुर्थ रेचक।
(कॉस्मिक डांसर) कहे जाने वाले शिव, (नटराज) नृत्य के प्रथम देव है और उनकी पत्नी पार्वती नृत्य की प्रथम देवी हैं। भारतीय शास्त्रीय नृत्य की कुल नौ प्रमुख शैलियाँ हैं। उत्तर पश्चिम और मध्य भारत में कत्थक, तमिलनाडु में भरतनाट्यम, केरल में कत्थकली, मणिपुर में मणिपुरी, उड़ीसा में ओडिसी, आंध्र प्रदेश में कुचीपुड़ी, असम में सत्त्रिया नृत्य, पूर्वी भारत में छऊ एवं केरल में मोहिनीअट्टम। शास्त्रीय नृत्यों में ताण्डव (शिव) और लास्य (पार्वती) के द्वारा दो प्रकार के भाव प्रकट होते हैं।
अभिव्यक्ति नृत्य, इसमें कविता के छंदों के अर्थ को व्यक्त करने के लिए अंग, चेहरे के हाव-भाव, और हाथ के द्वारा व्यक्त मुद्राओं को शामिल किया जाता है। नाट्य या नाटक, इसमें अभिनय के चार तत्वों का एक विषय पर संवाद करने के लिए उपयोग होता है। अभिनय के चार तत्व हैं- (क) अंगिका या शारीरिक गतिविधियाँ
(ख) वाचिका या भाषण
(ग) वेशभूषा, स्थान एवं गुण और
(घ) पवित्र मानसिक स्थितियाँ
मोहन जोदड़ो से प्राप्त ‘नृत्यरत स्त्री की मूर्ति’ इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि भारत प्राचीन काल से नृत्य, संगीत, चित्र कला को संजोता रहा है। हिन्दू धर्म में नृत्य कला, मूर्तिकला के कलाकारों को सदियों से मान मिलता रहा है। इसी कारण हमारे मंदिरों पर स्पष्ट रुप से कला का प्रभाव दिखाई देता है।
चूँकि प्रत्येक नृत्य का उद्देश्य रस पैदा करना है, यह रस भाव के अनुसार दर्शक में नर्तक या नर्तकी द्वारा बनाई गई भावना के अनुसार उत्पन्न होता है। नाट्यशास्त्र उन्हीं मानवीय भावों को नौ रसों में व्यक्त करता है। श्रृंगार (प्रेम); वीर (वीरता); रुद्र (क्रूरता); भय (भय); वीभत्स (घृणा); हास्य (हंसी); करुण (करुणा); अद्भुत (आश्चर्य); और शांत (शांति)।
वैश्विक स्तर पर पाश्चात्य कला का केंद्र फ्रांस को माना जाता है। यहाँ सम्भ्रान्त वर्ग जब कला से दूर हुआ तब कला गिरावट के स्तर पर पहुँची। दर-अस्ल लोग सामाजिक और आर्थिक कारणों से दूर जाने लगते हैं। कला से दूर होने के कारण लोग अपने स्वभाव को जो प्रकृतिगत स्वभाव है, उसे छोड़ने लगते हैं। मन में उठने वाले भावों को मारने लगते हैं।
एक ओर कला का उद्देश्य मनोरंजन है तो दूसरी ओर आत्मोसर्ग। हक़ीक़त यह है कि आत्मोसर्ग की स्थिति में व्यक्ति कला में अपना ही अक़्स देखता है। उसे देखकर प्रसन्नता की चरम अवस्था को प्राप्त करता है। आधुनिक नृत्य कला मन के भावों की अभिव्यक्ति, देह की विविध भाव भंगिमा के द्वारा करती है, जिस नृत्य में भावों की यथार्थता के साथ मौलिकता होती हैं वह नृत्य कला मन पर गहरा प्रभाव डालती है।
व्यक्ति के जीवन को बदलने की क्षमता रखती है। यह सभी के मन पर गहरा छाप छोड़ने वाली और स्मरणीय होती हैं। इसीलिए, नृत्य कला में शामिल किसी भी नृत्य का चित्त पर प्रभाव चिरस्थायी होना अहम माना जाता है।
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