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वह अंधेरे की कच्ची चमक से
बाहर निकलती है,
और फिर उन्हें वापस मोड़ देती है।
परत दर परत
ख़ुद की छवि के
टूटे हुए सपनों के
गीतों के टुकड़ों के
टूटे हुए शरीरों
और टूटी हुई आवाज़ों के
टूटे हुए घेरों को देखती हैं।
सुबह और शाम को
आती-जाती सांस को
स्वयं सारी भाषाओं को
जिसकी लिपि ईजाद नहीं
उसका अनुवाद करती है।
प्रकाश के बिना सूर्य और चंद्रमा हो जैसे
आकाश और पृथ्वी अंधेरे में पड़े हो जैसे
सहस्राब्दी का ज़हर पीकर भी
आधा रक्त-आधा आँसू सीकर भी
लथपथ रहती है।
वह अपनी भाषा में
अपनी कविता कहती हैं।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
बाहर निकलती है,
और फिर उन्हें वापस मोड़ देती है।
परत दर परत
ख़ुद की छवि के
टूटे हुए सपनों के
गीतों के टुकड़ों के
टूटे हुए शरीरों
और टूटी हुई आवाज़ों के
टूटे हुए घेरों को देखती हैं।
सुबह और शाम को
आती-जाती सांस को
स्वयं सारी भाषाओं को
जिसकी लिपि ईजाद नहीं
उसका अनुवाद करती है।
प्रकाश के बिना सूर्य और चंद्रमा हो जैसे
आकाश और पृथ्वी अंधेरे में पड़े हो जैसे
सहस्राब्दी का ज़हर पीकर भी
आधा रक्त-आधा आँसू सीकर भी
लथपथ रहती है।
वह अपनी भाषा में
अपनी कविता कहती हैं।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
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