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प्राचीनतम शहरों में
जो आवाज़े बंद हो गई उनकी
फुसफुसाहट सुनता हूँ।
जानते, देखते, कल्पना करते
सभ्यताएं बहुत बीत चुकी हैं।
वह सब जो मैंने देखा है
मुझे जो दिखाई देता है
सब इतना ही है कि
कहीं रेत के कण जैसे
किसी दर्पण में दर्ज़ हो सके।
फिर भी मानने को जी नहीं चाहता है
क्योंकि मैं गीले हाथों से
टपके बूँदों को अब तक नहीं ढूँढ़ सका हूँ
दर्पण में सिर्फ एक चेहरा है
एक खोपड़ी है
जो गर्दन से जुड़े हुए
दर्पण के सामने थका-सा है।
धुंध मेरे सामने फीका है।
नश्वर दिल में बसे दिल-ए-बे-क़रार ने
बस विफल करना सीखा है
जैसे विफलताओं में कोई साथ नहीं देता है।
वैसे ही आत्मा दिल को छोड़कर चल देती है?
मेरी उसे रोकने की हर कोशिश
कोई है, जो नाकाम कर देता है।
जानबूझकर कोई भी परिणाम
नहीं बना रहा हूँ
हँसी-ख़ुशी दिल में क़ैद रहेगी
प्रत्येक जीवन में पाए जाने के लिए
मैं आत्म् के बग़ैर यहाँ रहूँगा।
अवचेतन आंतरिक दुनिया में
रेत कण के शिला बनते हुए
वास्तविकता का हिस्सा बनकर
सभ्यता के अनुभव में रहूँगा।
- कामिनी मोहन पाण्डेय।
जो आवाज़े बंद हो गई उनकी
फुसफुसाहट सुनता हूँ।
जानते, देखते, कल्पना करते
सभ्यताएं बहुत बीत चुकी हैं।
वह सब जो मैंने देखा है
मुझे जो दिखाई देता है
सब इतना ही है कि
कहीं रेत के कण जैसे
किसी दर्पण में दर्ज़ हो सके।
फिर भी मानने को जी नहीं चाहता है
क्योंकि मैं गीले हाथों से
टपके बूँदों को अब तक नहीं ढूँढ़ सका हूँ
दर्पण में सिर्फ एक चेहरा है
एक खोपड़ी है
जो गर्दन से जुड़े हुए
दर्पण के सामने थका-सा है।
धुंध मेरे सामने फीका है।
नश्वर दिल में बसे दिल-ए-बे-क़रार ने
बस विफल करना सीखा है
जैसे विफलताओं में कोई साथ नहीं देता है।
वैसे ही आत्मा दिल को छोड़कर चल देती है?
मेरी उसे रोकने की हर कोशिश
कोई है, जो नाकाम कर देता है।
जानबूझकर कोई भी परिणाम
नहीं बना रहा हूँ
हँसी-ख़ुशी दिल में क़ैद रहेगी
प्रत्येक जीवन में पाए जाने के लिए
मैं आत्म् के बग़ैर यहाँ रहूँगा।
अवचेतन आंतरिक दुनिया में
रेत कण के शिला बनते हुए
वास्तविकता का हिस्सा बनकर
सभ्यता के अनुभव में रहूँगा।
- कामिनी मोहन पाण्डेय।
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