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गाता है चुपचाप सुमधुर गीत
प्रेमी अपनी ही धड़कन का।
गुनगुनाता है प्रेरित प्रेम
नव उपवन की सुगंध का।
ज्यों-ज्यों परछाईं आगे बढती है
अपना चेहरा छुपा-छुपाकर।
त्यों-त्यों गतिमान उजाला आगे बढ़ता है
अपनी छवि दिखा-दिखाकर।
प्रेम बिना अंधेरे
बिना उजाले के रच-बसकर।
बुनियाद
अंतस् में है स्थिर धंस-धंसकर।
कितना दुखी है
कितना सुखी है
सोचती है सोच-सोचकर।
मिज़ाज बदला वो एक कमरे से
दूसरे कमरे में चली गईं
विस्मित-सी विरक्ति गढ़-गढ़कर।
आँखों में बूँद की कमी है
ऊँघती हैं ऊब-ऊबकर
रिक्त स्थानों में रखा मसौदा देखती हैं
मुँह-अँधेरे जाग-जागकर।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
प्रेमी अपनी ही धड़कन का।
गुनगुनाता है प्रेरित प्रेम
नव उपवन की सुगंध का।
ज्यों-ज्यों परछाईं आगे बढती है
अपना चेहरा छुपा-छुपाकर।
त्यों-त्यों गतिमान उजाला आगे बढ़ता है
अपनी छवि दिखा-दिखाकर।
प्रेम बिना अंधेरे
बिना उजाले के रच-बसकर।
बुनियाद
अंतस् में है स्थिर धंस-धंसकर।
कितना दुखी है
कितना सुखी है
सोचती है सोच-सोचकर।
मिज़ाज बदला वो एक कमरे से
दूसरे कमरे में चली गईं
विस्मित-सी विरक्ति गढ़-गढ़कर।
आँखों में बूँद की कमी है
ऊँघती हैं ऊब-ऊबकर
रिक्त स्थानों में रखा मसौदा देखती हैं
मुँह-अँधेरे जाग-जागकर।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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