
चार मुक्तक
(1)
बहरों के वजन भर से ग़ज़ल तो हो नहीं जाती,
मतला का़फि़या कहकर ग़ज़ल तो हो नहीं जाती,
ग़जल की रूह होती है जिगर का खूँ थिरकता है,
ग़ज़ल का नाम देने से ग़ज़ल तो हो नहीं जाती ।
(2)
गजल में मीर दिखते हैं वहीं दुष्यंत भी तो हैं,
ग़जल है आह की शुरुआत तो ये अन्त भी तो है,
ग़ज़ल को परियों की कथाओं से आगे है बढ़ना,
ग़जल सावन है पतझड़ है यही वसन्त भी तो है।
(3)
ग़ज़ल जनसाधारण की बात कर ले तो कितना अच्छा,
ग़ज़ल नव अवदानों को साथ ले ले तो कितना अच्छा,
हवाओं से चिराग़ों से ख़ंज़र से आगे भी बढकर,
ग़ज़ल नव अरमानों को पांख दे दे तो कितना अच्छा।
(4)
ग़ज़ल ज़ज्बात और अल्फाज़ का गुञ्चा है गुलशन है,
ग़ज़ल आहट है प्रीतम की वहीं लहरों का चुम्बन है,
ग़ज़ल इज्ज़त है अदबों की इसे महफ़ूज़ है रखना,
ग़ज़ल बचपन की वंशी है वहीं यौवन का सावन है।
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