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चार मुक्तक


(1)


बहरों के वजन भर से ग़ज़ल तो हो नहीं जाती,

मतला का़फि़या कहकर ग़ज़ल तो हो नहीं जाती,

ग़जल की रूह होती है जिगर का खूँ थिरकता है,

ग़ज़ल का नाम देने से ग़ज़ल तो हो नहीं जाती ।


(2)


गजल में मीर दिखते हैं वहीं दुष्यंत भी तो हैं,

ग़जल है आह की शुरुआत तो ये अन्त भी तो है,

ग़ज़ल को परियों की कथाओं से आगे है बढ़ना,

ग़जल सावन है पतझड़ है यही वसन्त भी तो है।

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