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रचना: अमृत है हर बूँद
*******************
बूँद एक टपकी गगन से ।
बूँद एक टपकी नयन से ।।
बूँद का हर रूप मानव,
को परिष्कृत कर गया।।
बूँद गिरती जब सुमन पे ।
बूँद गिरती जब तपन पे ।।
बूँद का प्रारूप प्रकृति को,
सुसज्जित कर गया ।।
बूँद की भर के अँजूरी ।
बूँद हर पल है जरूरी ।।
बूँद का प्यासा समंदर,
खुद को गहरा कर गया ।।
बूँद है आकार जीवन ।
बूँद से साकार तन मन ।।
बूँद ही बनकर रुधिर हर,
धमनियों में बह गया ।।
बूँद की महिमा जो समझे ।
बूँद को प्रतिपल सहेजें ।।
बूँद को अमृत समझने,
वाला सागर बन गया ।
**जिज्ञासा सिंह**
स्वरचित एवं मौलिक
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बूँद एक टपकी गगन से ।
बूँद एक टपकी नयन से ।।
बूँद का हर रूप मानव,
को परिष्कृत कर गया।।
बूँद गिरती जब सुमन पे ।
बूँद गिरती जब तपन पे ।।
बूँद का प्रारूप प्रकृति को,
सुसज्जित कर गया ।।
बूँद की भर के अँजूरी ।
बूँद हर पल है जरूरी ।।
बूँद का प्यासा समंदर,
खुद को गहरा कर गया ।।
बूँद है आकार जीवन ।
बूँद से साकार तन मन ।।
बूँद ही बनकर रुधिर हर,
धमनियों में बह गया ।।
बूँद की महिमा जो समझे ।
बूँद को प्रतिपल सहेजें ।।
बूँद को अमृत समझने,
वाला सागर बन गया ।
**जिज्ञासा सिंह**
स्वरचित एवं मौलिक
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