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नींदे आँखों से कब उड़ी पता ही नहीं चला,
मन ख़्वाबों को बुनते बुनते कहाँ ले चला
निकले थे समंद्र की गहराई नापने ,
लहरों में कब खो गए पता भी ना चला!!
सोच थी इस आसमां पर छा जाने की,
इस दुनिया से कुछ अलग कर गुजर जाने की,
मुझसे थी जिनको उम्मीदें बेसुमार, उन्हें पूरा कर जाने की,
ये राहें कब खुद को खुद से दूर कर गयी पता भी ना चला!!
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