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एक सोच को पकड़ कर मैं कुछ इस क़दर बैठा रहा,
सही ग़लत का पता नहीं बस उसे सोचता सिता रहा,
सोच सोच के ख़्यालों में विचारो को मैं बुनता रहा,
और सही ग़लत में हर बार मैं ग़लत को ही चुनता रहा,
ये ग़लतफ़हमी ही थी की सब कुछ ग़लत ही था,
सारी रात इसी जंग को मैं फ़िज़ुल, बेबस लड़ता रहा !!
सुबह का सुरज़ जब चढ़के माथे पे आया,
विचारों का ये माया जाल भी थोड़ा बिख़राया,
पर, शायद अब देर हो चुकी थी,
गलतफहमियाँ अब सोच बन चुकी थी,
एक सोच जिसका ना कोई आइना था,
वो सोच जिसका न कभी सच से सामना था,
इस सोच सोच ने इतने सितम ढहा दिए
जो गुनाह किए नहीं नाम अपने करा लिए!!!
~JeetR
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