Share0 Bookmarks 48681 Reads0 Likes
एक सोच को पकड़ कर मैं कुछ इस क़दर बैठा रहा,
सही ग़लत का पता नहीं बस उसे सोचता सिता रहा,
सोच सोच के ख़्यालों में विचारो को मैं बुनता रहा,
और सही ग़लत में हर बार मैं ग़लत को ही चुनता रहा,
ये ग़लतफ़हमी ही थी की सब कुछ ग़लत ही था,
सारी रात इसी जंग को मैं फ़िज़ुल, बेबस लड़ता रहा !!
सुबह का सु
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments