
न पागल हूं न दिवाना, हूं मैं गृहस्थ मस्ताना,
है जन्नत गांव में अपनी,लगें हर साम सुहाना,
हूं मैं गृहस्थ...
कभी सोहर कभी कजरी, कभी शहनाईयां बजती,
हरेक खेतों में फसलों की, कभी है क्यारियां सजती,
यहां हर लोग गाते हैं सियाबर राम का गाना,
हूं मैं गृहस्थ...
न अम्बर सोच सकता हूं न धरती छोड़ सकता हूं,
जुड़ा हूं गाढ़ गंगा से,न रिश्ता तोड़ सकता हूं,
यहीं पैदा हुए हैं हम,यहीं पर है गुजर जाना,
हूं मैं गृहस्थ...
पिता के अपने पद चिन्हों,पे चल कर राग लिखते हैं,
है वो गुज़रे हुए कुछ पल,वो फिर कुछ आज लिखते हैं,
ये धरती आन है अपनी ये धरती शान है अपनी,
ये धरती पर उगी फसलों को, अपनी जान है माना,
हूं मैं गृहस्थ मस्ताना ...
बसंती आब लेकर हम,दिलों पे राज करते हैं,
वो किलकारी है पंछी देख, अपने आप करते हैं,
हम्ही पे नाज़ करते हैं वो सबकुछ जानते हैं लोग,
ये गमछा है मेरी पहचान, इसी में है लिपट जाना,
हूं मैं गृहस्थ मस्ताना....
" मंजर"
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments