
जब भी कमाल की शायरी की महफ़िल सजेगी।
राहत इंदौरी साहब की कमी जरूर खलेगी।
बड़े ही खूबसूरत शहर इंदौर के थे ये रहने वाले।
इनकी ऐसी कोई शायरी नहीं जिसे सुनकर और पढ़कर लोग वाह वाह ना कहने वाले।
पिता इनके रफ्तुल्लाह कुरैशी और मां मकबूल उन निशा के घर राहत साहब का जन्म था हुआ।
जिसने भी राहत साहब की शायरी को सुना वो तो इनका दीवाना जरूर था हुआ।
शुरवात के दिनों में घर के हालात नहीं थे अच्छे।
कहने वाले जो मर्ज़ी कहे लेकिन राहत साहब मुस्लमान थे बिल्कुल सच्चे।
शायरी की जब भी राहत साहब महफ़िल थे सजाते।
इनके चाहने वाले पता नहीं कहा कहा से इन्हें सुनने थे आते।
एक शेयर अक्सर राहत साहब अक्सर अर्ज़ करते थे।
मैं जब मर जाऊं मेरी अलग पहचान लिख देना ।
लहू से मेरी पेशानी पे मेरे वतन हिंदुस्तान का नाम लिख देना ।।
रंग चाहे था राहत साहब का काला।
लेकिन शायरी को इ
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