
जब भी कमाल की शायरी की महफ़िल सजेगी।
राहत इंदौरी साहब की कमी जरूर खलेगी।
बड़े ही खूबसूरत शहर इंदौर के थे ये रहने वाले।
इनकी ऐसी कोई शायरी नहीं जिसे सुनकर और पढ़कर लोग वाह वाह ना कहने वाले।
पिता इनके रफ्तुल्लाह कुरैशी और मां मकबूल उन निशा के घर राहत साहब का जन्म था हुआ।
जिसने भी राहत साहब की शायरी को सुना वो तो इनका दीवाना जरूर था हुआ।
शुरवात के दिनों में घर के हालात नहीं थे अच्छे।
कहने वाले जो मर्ज़ी कहे लेकिन राहत साहब मुस्लमान थे बिल्कुल सच्चे।
शायरी की जब भी राहत साहब महफ़िल थे सजाते।
इनके चाहने वाले पता नहीं कहा कहा से इन्हें सुनने थे आते।
एक शेयर अक्सर राहत साहब अक्सर अर्ज़ करते थे।
मैं जब मर जाऊं मेरी अलग पहचान लिख देना ।
लहू से मेरी पेशानी पे मेरे वतन हिंदुस्तान का नाम लिख देना ।।
रंग चाहे था राहत साहब का काला।
लेकिन शायरी को इन्होंने और शायरी ने इनकी ज़िन्दगी को एक बहुत बड़ा मुकाम दे डाला।
कुमार विश्वास इन्हें अपना गुरु थे मानते।
शायरी सुनने वाले वो कौन लोग है जो राहत साहब को नहीं जानते।
जिसने भी राहत साहब को नहीं सुना ।
उसने फिर क्या सुना।
राहत साहब ने अक्सर अपनी शायरी में उर्दू ज़ुबान को चुना।
शायर तो और भी कई बड़े है।
लेकिन राहत इंदौरी साहब के मज़ाक करने के किस्से भी दिलचस्प बड़े है।
कई फिल्मों के लिये भी राहत साहब ने गीत लिखे।
उनके लिखे गीतों का भी लोगों की ज़ुबान पे पूरा असर आज तक दिखे।
जब इनके इंतकाल की ख़बर आई इनको सुनने वाला हर शक्श रोया।
क्योंकि वतन हिंदुस्तान ने बेशकीमती उर्दू ज़ुबान वाले गीत और ग़ज़ल लिखने और सुनाने वाले राहत इंदौरी साहब को हमेशा हमेशा के लिये खोया।
शायर तो कई और आ जाएंगे।
लेकिन दावा है की राहत साहब की जगह कोई ना ले पाएंगे।
प्रभु,नीलू दीदी और मेरी मां पता नहीं अपने बेटे सनी से अभी और क्या क्या लिखवाएंगे✍️
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