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ज़िन्दगी की कश्ती में
मैं भी एक मुसाफिर हूं
पर न कोई मंज़िल है
न कोई किनारा है
हैं गज़ब की लहरें भी
भँवर भी बहुत से हैं
टूटते कगारे हैं
नाख़ुदा भी गायब है
खुद का ही सहारा है
देखते हैं कश्ती ये
पार ले के जाती है,
या कि डूब जाती है।
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