
मस्तिष्क पटल पर फैली तेरी स्मृतियां भूल बिसर चुकी है,
हां! आंखों पर हमनें अच्छे नंबर का अब ऐनक चढ़ाया है,
स्पष्ट दिख सकें तेरी धुंधली यादें,
हां! वादे जो लिए तुमने डींगे हांके,
चित अब चिड चिड़ा है,
इसे नही सुहाता प्रेम चिड़िया चिड़ा का....
हृदय में एक सोच पलती है,
प्रयोगवाद की परछाई सी ढलती है,
हुआ प्रयोग मेरा कुछ ऐसा,
प्रेम की परिपाटी सीखने जैसा....
मन अटकता भटकता,
सीखता है भौतिकवाद से पाठ नया,
निर्जल संसार की माया है,
फैली चारो और प्रपंची काली छाया है.....
स्थिरता रुकी थी मस्तिष्क में,
विचलित है अस्तित्व खोजने को,
कोई पूछे प्रमाण प्रेम का मेरे,
घड़ी-घड़ी मजबूर हूं मैं सोचने को....
मेरी कविताओं के एक दौर में,
गूंजता था छायावाद का शोर,
श्रृंगार की अतिश्योक्ति,
मैं ढूंढता कुछ ऐसी ही युक्ति,
हां बन पड़ती थी,
कुछ पंक्तियों में सूक्ति,
चंद्र कलाए भी समक्ष इनके झुकती....
आज थमा दे बस मुझे,
कोई कागज कलम दवात,
तो मैं चखाऊं,
इस विश्व को आधुनिकता का स्वाद,
प्रायोजित है मानवता पर,
सांप्रदायिक फसाद....
होती कोशिशे कई,
आवाज उठा सामंजस्य बैठाने की,
पर पुरजोर कोशिशें होती वही,
कस कर कंठ दबाने की....
बैठे सिंहासनो पर सफेद पोश लोग,
जनता को खानाबदोश छोड़,
मनुज गुण छोड़,
दनुज गुण को लेकर होड़,
रक्त पिपासा की दौड़,
मानवता की गर्दन तोड़....
सने रंध्रों से हंसता,
कर छिन्न-भिन्न आपसी प्रेम को,
है संदेश मेरा तो यही,
प्यार प्रेम रूहानी नाश,
मन में मन से धारा फूटे,
छलके सूक्ष्म प्रेम की आश.....
एकता,सौहार्द ही अमन तत्व,
सत्य सत्यता यही सत्व,
ना बहकों तुम,
राजनैतिक धारा में,
तन से शीश उतारा में....
प्रेम,प्रेम और बस प्रेम,
हां! यही है इसकी जरूरत,
खत्म करो यार,
अब बस नफरत.....
सही कहता हूं,
सच कहता है,
भोगा हूं,
देखा हूं,
सहा हूं,
सोचता हूं,
हां! फिर कहता हूं.....
भारत भरत की संतान है,
झेले कई क्रुद्ध संताप है,
फिर भी मन कोई ना विलाप है,
रटते है हृदय प्रेम का अलाप है....
संदेश मेरा कुछ वैशिष्टय से भरा,
हृदय आरम्भ में टूटा,
प्रेयसी का साथ छूटा,
एक यात्रा वृतांत,
मेरी कविताओं का मध्य भाग,
सफेद पोशो पर गुस्सा फूटा,
हृदय में लग रही थी जो आग,
स्वयं का यह कैसा स्वार्थ,
भला! भोली जनता ,
कब समझी इनका कूट अर्थ.......
~इन्द्राज योगी
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