मसखरा समाज's image
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मैं कुलीन समाज का,

बहिष्कृत नागरिक हूं,

तुम्हारी कुपरंपराओं से परे,

परिष्कृत विचारों से सना,

बेदखल बेगार हूं,


नित असफलताओं का,

मेरी जुबां मांगे स्वाद,

तुम्हारे आस्वादन में,

मैं फीका बेकार हूं,


समाज! ऐसे समाज,

नही प्रेरणा तुम मेरी,

तुम मसखरे,नौटंकियां,

पीठ पीछे हार पर,

मेरी कसते तुम फब्तियां,


भला! भला एकांत मेरा,

वही देता सुखांत मुझे,

एक खिड़की और चारदिवारी,

बंद हृदय का दरवाजा,

देते मुझको आश्चर्य अद्भुत,

जब भी मैं खो देता सुध-बुध,


पगार दिहाड़ी और मजबूरी,

मजदूरी करती कलम है मेरी,

चुनती दिवारें ऊंची-ऊंची,

दिखती जहां से सूरतें उजली-उजली,

उजली-उजली यह भी गुत्थी,

मैं सीधा-मन सीधा,

मुश्किलें पर उलझी-उलझी,

तमाम जीवन जो न सुलझी,


कविताएं सार्थक है मेरी,

पर जीवन निरर्थक रहा सदा,

अर्थ में फंसी व्यवस्था,

क्षण-क्षण सांस है दिवालिया,

होशियार हूं,

अब भी होश में यार हूं,

तुम्हारे ऐसे ही समाज में,

और बची-खुची सांसे लेने को तै

यार हूं।

~इन्द्राज योगी








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