
बीते दिनों की बात है,
झील के उस पार हम भी पहुंचे थे,
ख्वाबों का काफिला लेकर,
बेचैन, झील की लहरों की माफिक,
बहते-बहते, कहते-कहते।
तट से दूर, वादों से मजबूर,
झील की गहराई में,
उसके पांव के निशां खोजते,
सफ़ा-वफा के किस्से कहते-सुनाते।
जब पहुंचे बीच भंवर तो याद आया,
उसके गालों के गड्ढे,
जो सजते थे दो कमल की भांति,
मुखड़े पर चमचमाती थी कांति,
वही तैर रही थी लट उसकी,
बन बुनियादी प्रेम कहानी,
सुना भी था, देखा भी,
उसकी आंखे झील जैसी।
यकायक! मांजी ने पुकारा,
"ओ साथी" ठहरों,
भावनाओं का ज्वार शांत करो,
मन व्यर्थ बैचैन न करो।
झील के ही उस पार,
एक किनारा एक ओर है,
सुना है जहां नव शोर है,
जो जीना सिखाता है,
दुःखों को पीना सिखाता है।
एक है दुनिया, पर वहां अलग है,
झील के उस पार, प्यार अलग है,
बयार अलग है,
शाम अलग है।
देखो साथी ढाल है आया,
तीर से पहले एक सवाल है आया,
क्या तुम मुड़कर देखोंगे?
अतीत का दामन छोड़ोगे?
जीवन को पल-पल कोसोगे?
अगर उत्तर है, हां!
अंतत: अंत ही सोचोगे।
~इन्द्राज योगी
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