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एक दुनिया पलती है,
ज्यों-ज्यों शाम ढलती है,
रंग-बिरंगे,काले-पीले,
सुंदर-सुंदर और निराले,
सहमे-दुबके नैन निहारे,
तेज कलरव संग खोजे बसेरा,
जब बढ़े डूबते सुरज संग अधेरा,
एक ऐसा रिश्ता,
मेरा उसका और उनका,
अर्थ नीचे है जिसका,
मैं जो मैं हूं,
उसका से विशाल वट वृक्ष है,
उनका से सभी पक्षी है,
उठते संग-संग,
अनमने ढंग-ढंग,
उनके नही मेरे,
भौर अभिवादन को,
चहकते,
कोयल,
मोर -पपीहे,
प्रभात गान सुनाते,
भ्रमर गुन-गुनाते,
एक सत्कार-सा,
प्रणाम,
मिठू उड़ता-उड़ता,
कह जाएं,
अहा! जिंदगी कैसी,
मेरे समक्ष पलती है।
आसमान से होड़,
लगाएं,
आशा मेरी को,
ये सब नभचर,
पंख लगाएं,
बदले ऋतु,
रुत सुहानी,
भीगती ठिठुरती कहे,
कहानी,
कहें वो ऊपर किस्से बैठे,
सुनूं मैं बैठे बांट-बांट के हिस्से,
गिल्लों रानी का रुतबा,
न्यारा,
बरगद छान मारे,
सारा,
कुछ अतिथि भी,
आते मेरे यहां,
उनके यहां,
मैं अज्ञात,
वे अज्ञात,
लंबी चोंच,
चटकीले रंग,
कहों दोस्तों कैसे है,
इनके ढंग,
उजली पोशाक,
काले केश,
कहोें मित्र आज कौन,
हैं संग,
रिश्ता उनका,
मेरा बढ़ता जाता है,
अनदेखा हो जाने पर,
मेरे,
गुटर-गूं कबूतर भी,
आवाज लगाता है,
देरी पर मेरी,
सबका बुरा,
मेरा प्यारा,
काग भी काय-काय,
चिल्लाता है,
नही पड़ोसी मानव,
मेरे,
इन महामानव संग ही,
मेरे बसेरे,
उड़ान भर,
नभ की ओर,
एक आवाज में,
करे शोर,
दे जाते ऊपर,
शीश के गुजर,
शुभाशीष-शुभाशीष,
छा जाता घनघोर,
अंधकार,
मचता जब आसमान में,
हाहाकार,
बादल करते गर्जना,
चित्कार,
दुबकते वे भी,
मैं भी,
पड़ता वर्षा का,
प्रहार,
पर तटस्थ,
खड़ा रहता,
जो था,
वह था,
बरगद,
जो ढके रखता था,
उनको और मुझको,
शीतलता क्या है,
यह हमने जाना,
जब आसमान ने,
ताप बरसाया,
तेज ग्रीष्म ने,
झुलसाया,
फैला दी बांह,
दे दी छांव,
मन में एक भय,
सताएं,
दुनिया हमारी अलग है,
हाय!,
जड़े, शाख,
सीमित, समान,
मानव मन,
असीमित, असमान,
विकास की चकाचौंध में,
मानव भूले धर्म,
कर्तव्य,
दोहन करे,
अतिव्ययी सा,
काटे या,
उखाड़ फेंके,
उजाड़ दे,
इस दुनिया को,
मेरे बसे बसाएं,
ढेरे को,
मुंडेर-सी शाखों को,
सुबह शाम के साथी,
लुप्त हो जायेंगे,
अंधेरों से टकराएंगे,
चहचाह कर ही,
मरजाएंगे,
कहो?
क्या?
हम मानव कहलाएंगे......
•इन्द्राज योगी•
ज्यों-ज्यों शाम ढलती है,
रंग-बिरंगे,काले-पीले,
सुंदर-सुंदर और निराले,
सहमे-दुबके नैन निहारे,
तेज कलरव संग खोजे बसेरा,
जब बढ़े डूबते सुरज संग अधेरा,
एक ऐसा रिश्ता,
मेरा उसका और उनका,
अर्थ नीचे है जिसका,
मैं जो मैं हूं,
उसका से विशाल वट वृक्ष है,
उनका से सभी पक्षी है,
उठते संग-संग,
अनमने ढंग-ढंग,
उनके नही मेरे,
भौर अभिवादन को,
चहकते,
कोयल,
मोर -पपीहे,
प्रभात गान सुनाते,
भ्रमर गुन-गुनाते,
एक सत्कार-सा,
प्रणाम,
मिठू उड़ता-उड़ता,
कह जाएं,
अहा! जिंदगी कैसी,
मेरे समक्ष पलती है।
आसमान से होड़,
लगाएं,
आशा मेरी को,
ये सब नभचर,
पंख लगाएं,
बदले ऋतु,
रुत सुहानी,
भीगती ठिठुरती कहे,
कहानी,
कहें वो ऊपर किस्से बैठे,
सुनूं मैं बैठे बांट-बांट के हिस्से,
गिल्लों रानी का रुतबा,
न्यारा,
बरगद छान मारे,
सारा,
कुछ अतिथि भी,
आते मेरे यहां,
उनके यहां,
मैं अज्ञात,
वे अज्ञात,
लंबी चोंच,
चटकीले रंग,
कहों दोस्तों कैसे है,
इनके ढंग,
उजली पोशाक,
काले केश,
कहोें मित्र आज कौन,
हैं संग,
रिश्ता उनका,
मेरा बढ़ता जाता है,
अनदेखा हो जाने पर,
मेरे,
गुटर-गूं कबूतर भी,
आवाज लगाता है,
देरी पर मेरी,
सबका बुरा,
मेरा प्यारा,
काग भी काय-काय,
चिल्लाता है,
नही पड़ोसी मानव,
मेरे,
इन महामानव संग ही,
मेरे बसेरे,
उड़ान भर,
नभ की ओर,
एक आवाज में,
करे शोर,
दे जाते ऊपर,
शीश के गुजर,
शुभाशीष-शुभाशीष,
छा जाता घनघोर,
अंधकार,
मचता जब आसमान में,
हाहाकार,
बादल करते गर्जना,
चित्कार,
दुबकते वे भी,
मैं भी,
पड़ता वर्षा का,
प्रहार,
पर तटस्थ,
खड़ा रहता,
जो था,
वह था,
बरगद,
जो ढके रखता था,
उनको और मुझको,
शीतलता क्या है,
यह हमने जाना,
जब आसमान ने,
ताप बरसाया,
तेज ग्रीष्म ने,
झुलसाया,
फैला दी बांह,
दे दी छांव,
मन में एक भय,
सताएं,
दुनिया हमारी अलग है,
हाय!,
जड़े, शाख,
सीमित, समान,
मानव मन,
असीमित, असमान,
विकास की चकाचौंध में,
मानव भूले धर्म,
कर्तव्य,
दोहन करे,
अतिव्ययी सा,
काटे या,
उखाड़ फेंके,
उजाड़ दे,
इस दुनिया को,
मेरे बसे बसाएं,
ढेरे को,
मुंडेर-सी शाखों को,
सुबह शाम के साथी,
लुप्त हो जायेंगे,
अंधेरों से टकराएंगे,
चहचाह कर ही,
मरजाएंगे,
कहो?
क्या?
हम मानव कहलाएंगे......
•इन्द्राज योगी•
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