
जब तुम याद आते हो,
याद आते हैं मुझे ये नज़ारे।
बस्ती से दूर कोई पर्वत, झरनों की कल-कल का सुकूनी स्वर,
और सियाह रात के आगोश, में डूबा कोई सुनसान शहर ।
बहुत देर तक मैं वहीं बैठ कर उस एकांत को खुद में समेटने की कोशिश करती हूँ, पर हर बार कुछ छूट जाता है,
फिर कहीं दूर से किसी रेल की आवाज़ आती है, और मेरा ध्यान टूट जाता है ।
होश संभालती हूँ, और खुद को हक़ीक़त में पाती हूँ,
और एक ही पल में मेरा "कल-वाला" भ्रम फुट जाता है ।
कल थे तुम मेरे, बेशक मैं तुम्हे याद बहुत करती हूँ,
पर माफ करना तुम्हे इस तरह अपने कल में ले जाने से डरती हूँ ।
तुमसे वफ़ा करते-करते अपने कल से बेवफ़ाई नही कर सकती,
सुनो, यूँही हर रोज़ मैं अपनी रुसवाई नही कर सकती ।
मैं वापिस आई हूँ यहीं, लाई हूँ तुम्हारी यादें साथ,
थमा कर जा रही हूँ इनको मैं,
इसी पर्वत, इसी झरने और इसी रात के हाथ ।
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