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खिड़की पर खड़े तक रहे थे हम
उदास मन से वै ख़ाली आसमान
देख कर मुज़े आज़ाद-सा पंछी
आया ✈️ कहीं से समेटे उड़ान
सामने लगे नीम के पेड़ पर बेठ
कह रहाँ हो जैसे अनकही ज़बान
बोला हस के कैसे कटती क़ैद में
जो हमपे बीते क़ैदमें टटोलो ज़हन
करवाते हो करतबों के खेल हम से
तुम सर्कसमें सोटींके डर की ज़बान
किस्मत भी खेल रही खेल अनोखा
पालतू फ़िरे आज़ाद क़ैद में इन्सान
कहर कुदरत का या करमोंकी सज़ा
अब शायद जिक्र भी हमारा हैं बेजान
कुछ यूं मन भटकने लगा फरियाद में
ख़्वाब बनके रह गई प्रभु की दी शान
तड़पती-सिसकती-दहशतगर्द जानें
अनगिनत जनाज़े बदलती छोड़े जहाँन।
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