
कभी कभी अच्छा होता है कुछ एहसासों को अपने अंदर ही रख लेना।कभी भी उसको सामने वाले पर जाहिर न करना। हो सकता है ये कुछ वक्त तक हमें अंदर ही अंदर परेशान करे, पर सच में जब एक दिन सुकून का एहसास होगा तब हमें शायद ये भी यकीं हो जाए कि किस तरह से हमने ख़ुद को टूटने से बचाया हुआ है।
कभी भी मिट्टी के किनारों को नदी से अपनी मुहब्बत का इजहार तो नहीं करना चाहिए। वर्ना अपने प्यार का साथ खोने के साथ ही अपना वज़ूद भी खो देते हैं। और रही बात मुहब्बत की तो नदी भला कब और किसके लिए किसी किनारे पर खड़ी रही है।
जब भी किनारों ने अपनी बे-लैस मुहब्बत बयां किया है। खो दिया है उसने अपना वज़ूद और बस जा मिले हैं अपनी मुहब्बत में। पर अब उनका अपना कोई मुस्तबिल नहीं है.
इससे कहीं बेहतर होता नदी के वो किनारे, किनारे पर रहकर ही अपनी मुहब्बत निभाते देख लेते गुज़रते हुए अपनी मुहब्बत को और उसके मंजिल पर पहुंचाने के लिए उसको राह देते और बचा लेते अपने वज़ूद को..
~ऋषिता सिंह ईशा
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