
रश्क है मुझे
तुम्हारे इर्द गिर्द की
बेजान चीजों से भी
वो अंगूठी
जिसने तुम्हारी एक उँगली को
जकड़ के रखा है
तुम्हारे रगों की हरकतों का
एहसास है इसे
रश्क है मुझे
उस पश्मीने की चादर से
जो तुमसे लिपटी रहती है
तुम्हारी साँसों की गरमाहट
घुलती है इसके धागों में
रश्क है मुझे
तुम्हारी कलाई पर
उस केसरिया कलाबे से
बंधा हुआ तुमसे
जैसे चंदन की शाख़ पर नाग
रश्क है मुझे
सर्द हवाओं से
जो तुमको छू कर
गुजरती है हर रोज़
रश्क है मुझे
इस गुनगुनी धूप से
पहुँच जाती है जो
तुम्हारे कमरे की खिड़की के
छोटे सुराख़ से-
तुम्हारे बिस्तर तक
तुम्हारी बंद पलकों को छेड़ती
सबसे पहले तुम्हारा दीदार
नसीब होता है जिसको
रश्क है मुझे
उस काग़ज़ के टुकड़े से
ख़ास कर काग़ज़ के उस कोने से
जिसको आहिस्ता से
अपनी उँगलियों से छू कर
तुम पलटते हो
मैं जो हूँ
उससे बेहतर था कि
कोई सामान बेजान होती
तुम्हारे ज़िंदगी में होती
तुम्हारे साथ सरे आम होती
न दूर होती तुमसे इतनी
और न ज़माने में इतनी बदनाम होती
© ह्रषीता ‘दिवाकर’
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments