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मेरी माँ
वे हर मंदिर के पट पर अर्घ्य चढाती थीं
तो भी कहती थीं—
‘भगवान एक पर मेरा है।’
इतने वर्षों की मेरी उलझन
अभी तक तो सुलझी नहीं कि—
था यदि वह कोई भगवान... तो आख़िर कौन था?
रहस्यवादी अमूर्तन? कि छायावादी विडंबना?
आत्मगोपन? या विरुद्धों के बीच सामंजस्य बिठाने का
यत्न करता एक चतुर कथन?
‘प्राण तुम दूर भी, प्राण तुम पास भी।
प्राण तुम मुक्ति भी, प्राण तुम पाश भी।’
उस युग के कवियों
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