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घर याद आता है,
जब इस मज़मे में भी खुद को तन्हा पाते है,
सिर पर छत होने के बावजूद भी बेघर बन जाते है,
तब घर याद आता है।
जब किसी का सिर पे हाथ ना होना खटकता है,
जब इंसान खाली राहों में भी भटकता है,
तब घर याद आता है।
जब कोई ना हो मुंतज़िर,
जब चाह कर भी कुछ नही कर सकते किसी से ज़ाहिर,
तब घर याद आता है।
जब इन ए.सी. – कूलरों के बीच, वो छत पर सोना,
सोशल–मीडिया से ज़्यादा परिवार को देना
याद आता है,
तब घर याद आता है।
जब वो शाम को सब का साथ रहना,
वो बिन कहे भी सब कुछ समझना
याद आता है,
तब घर याद आता है।
जब वो खुशी का कतरा–कतरा मनाना,
इक दिन और ठहरने को एक नादान बहाना
याद आता है,
तब घर याद आता है।
जब बिन चाहे हो जाए दूरी,
जब कोई ना समझे मजबूरी,
तब घर याद आता है।
जब ना साज़ होने पर किसी का ना हो संग,
जब इंसानों के भी दिख जाए अनेक रंग,
तब घर याद आता है।
जब भी आस पास दिखता है अनचाहा दिखावा,
झूठे रुतबा जो मन को ना लुभाता,
तब घर याद आता है।
जब थक जाते है मेहमान के तरह घर आते आते,
बेघर हो जाते है जब चंद रुपए कमाते कमाते,
जब मकान में रह कर मन थक जाता है,
तब घर याद आता है,
घर याद आता है........
– हर्षिता कीर्ति
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