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क्या तुम एक कविता हो..?
जिसे लिखा था एक रोज़ मैंने
जब उतर आया था चांद
तालाब के पानी में ।
जब चांद में देखी थी
छवि तुम्हारी
और लिख डाले थे मैंने
उसकी चमक के पीछे छुपे
उसके घाव भी ।
चांद ये देख उतर आया था
विद्रोह पर
जैसे तुम हो जाती हो
विद्रोही, जब देख नहीं पाती
अन्याय...
याद है मुझे
कैसे तुम
ले आई थीं अंजुरी में
भर कर चांद को
और
बैठा लिया था उसे
अपनी ममतामयी गोद में
तुमने ।
तुम सच में एक कविता हो
जिसकी लय अभी मैं
ढूंढ नहीं पाया हूं ।
तुम,
जो कभी बंधी हो
रस, छंद और अलंकारों में
और कभी
मुक्त हो इन बंधनों में भी ।।
~गुंजन
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