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डर .......
प्रेम की अंगुलियो को थामे
चलते चलते
अचानक
आगे बढ़ जाता है
विद्रूप हंसी हसंता हुआ
रात उसके पलंग पर
रख जाता है
कुछ ख्वाब
जिसमें है होती है ,चाह
थाम कर हथेलियों को
शब्दों में ढाल सके
अंतस के अंधेरों को
बिन बारिश धूल जाए सारी
परछाइयां अतीत की
प्रेम खो चुके
द्वीप पर
जलाना चाहता है इक दिया
और डर
चुपचाप
हृदय की कंपित
आरोह अवरोह में
गहरे तक उतरता चला जाता है
गर यकीं ना आए
तुम अमावस की फीकी रात से पूछो....
नमक चाँद का क्या है....
गुंजन उपाध्याय पाठक
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