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मैं नहीं मिलुँगी तुम्हें
जन्म जन्मांतर के
बोझ तले
मैं शायद किसी
लम्हे में भी शामिल नहीं
जो खो गया था
वही ढल गयी हूँ कहीं
मुझे ढूँढते हो
अब मैं खुद में भी नहीं
ना कोई घड़ी
ना कोई रीति-रिवाज
ना कृष्ण पक्ष, ना शुक्ल पक्ष
ना कोई मौसम
ना दिन / रात
मैं उभर आना चाँहूगी
तुम्हारी पेशानी पर कहीं
गर याद कर सको तो
उभर आँऊगी
स्मृति पटल पर तेरी
इक लम्हा जीया था
जिंदगी से चुरा कर कभी
गुंजन उपाध्याय पाठक
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