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सुन सखी!

सुबह और शामें

आस्था से भरी बेला हैं

और दोपहरें सदा से ही

खाली और निर्लेप 


ईश्वर के सोने का समय है दोपहर

हलाँकि 

मैंने देखा है 

ईश्वर को

दोपहर में मंदिर के कपाटों के बाहर

हथौडे़ /गँड़ासे /तसले उठाए

नंगे बदन खड़ा है ईश्वर

जलते तलवों तले सृष्टि दबाए

ईश्वर के पसीने से भीजी माटी 

और ख़ुद फसलों में लहलहाता 

लाठी खाता वो अन्नदाता

उतर आता है 

प्रांगणों से बाहर 

कितना डरावना डर है 

की तुम 

उन्हें इक जुट देखकर घबराते हो 

दांतो तले उंगलियां 

दबाते हो 


देखो सखी !

 मंदिर के गर्भ गृह के बाहर

वो अपने विराट रूप में खड़ा है

पीठ पर ढोता हुआ सूरज

तर्जनी पर उठाए गोवर्धन !

नकारता हुआ इंद्र की सत्ता



गुंजन उपाध्याय पाठक

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