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हां ढूंढ रही हूं आजादी
आज देश भले आजाद है
पर नारी आज भी पुरुषों के बाद है
हां ढूंढ रही हूं
पहुंच गई है कल्पना चांद पर
पर हकीकत में आज भी हूं जमीं पर
मगर भरोसा है मुझे अपने आप पर
ढूंढ रही हूं
देखती हूं स्वप्न खुली आंखों के तले
बूढ़े मां बाप की उम्मीदों को रखने जिंदा
रोशन हो कैसे मेरा ये जहान
जहां घर से निकलना दुश्वार है
सरेराह लूट जाती है इज्जत मेरी
मूकदर्शक बने खड़े है सब
क्योंकि मै उनकी बेटी नही हूं
ना उनकी बहन हूं ना उनके परिवार की हूं
आखिर क्यों करे वो मदद मेरी
मगर फ़िर भी बेशर्म लोगों के ताने तैयार हैं
ये कैसे संस्कार है इस
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