
सुकून वो खोया कहां,
वो शाम वो सवेरा गुम है कहां,
खुद से बेगानी,
मैं और मेरी अधूरी कहानी,
लिखने बैठी जो गीत वो अधूरा,
लगता है हर शब्द बिखरा बिखरा,
ढूंढती हूं राहत का कोना,
चाहती हूं कोरी उस चुनरी को रंगना,
रीत ये है कैसी कैसा ये रिवाज़ है,
धुंधली हुई मेरी एक एक रात है,
खुद से मैं रूठूं या खुद को मना लूं,
उजड़े अक्स को मैं कैसे अब सवारूं,
कैद से छूटा एक परिंदा हो गई हूं,
तिनका तिनका अंदर अंदर राख हो चुकी हूं,
बंधन बिखरे से,
सब नाते छूटे हुए से,
खाली ये खत सवाल कर रहे हैं,
बेनाम से ये पन्ने मुझसे शिकायत कर रहे हैं,
किनारे से दूर उमड़ी एक लहर हूं,
थमी हुई सी एक झील हो गई हूं,
डूब के हासिल वो सीप खोखली सी है,
दूरी ये लंबी काफ़ी और नाव टूट गई है,
किसी राग में गुम मै मदहोशी में जी रही हूं,
अपनी परछाई का हाथ थामे खुदकी खोज में मैं खोई हूं,।।
– गोल्डी मिश्रा
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